Friday 10 August 2018

अनंत : एक जाने पहचाने भाव की अमूर्त अवधारणा

Infinity : an abstract idea but a heart felt emotion
अनंत : एक जाने पहचाने भाव की   अमूर्त अवधारणा ।
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आप अगर पूछेंगे कि गणित की परिभाषा  क्या है तो मैं  कहूँगा  कि यह एक भाषा है। अंधेरे घर में  काली बिल्ली ढूंढना या अंकों का विज्ञान,  एक क्लिष्ट या बेहद सतही परिकल्पना है गणित की परिभाषा ढूंढने के क्रम में । जैसे हर भाषा किसी अन्य भाषा में कही गई बातें , लिखी कहानियाँ या क्लिष्ट शब्दों को अपनी क्षमता के अनुरूप अनूदित कर लेती है उसी प्रकार की ताकत गणित के पास भी है। गणित भी आपकी तमाम अभिव्यक्तियों को अपना कलेवर प्रदान करने में  सक्षम है। अंक गणित की बारहखड़ी है या कहें तो संस्कृत की वर्ण माला या अरबी का क़ायदा है। बीजगणित की शैली में  यह क्रिया Mathematical formulation अर्थात् गणितीय स्वीकरण कहलाती  है।
गणित का 13 सिखों के लिए एक ॐकार का प्रतीक  है तो इस्लाम मे 786 बिसमिल्लाह का पर्याय है। गीता भी ॐ इस एक अक्षर को हीं ब्रह्म मानती  है।गणित में खालीपन को शून्य मानकर अपनी गिनती प्रारंभ करते हैं  तो काल्पनिक संख्या  को इयोटा ( ग्रीक वर्णमाला का  एक अक्षर ) थोड़ा i ( आइ ) जैसा जिसे ऋणात्मक 1 का द्विघात वर्गमूल square root  माना गया है। भारतीय संस्कृति का सांख्य दर्शन भी क्या संख्या को मानता है?
अब बात अनंत की जो अंग्रेजी का लुढ़का हुआ 8 जैसा दिखता है।  संख्या 8 का पतन अंग्रेज़ी भाषा के किसी तर्क के अंतर्गत अनंत हो सकता है क्या?
निश्चित रूप से किसी भी अभारतीय सभ्यता के पास इसका कोई साक्ष्य नहीं है । पर भारतीय  आर्ष संस्कृति में अनंत शेषनाग का नाम है और शेषनाग पर भगवान विष्णु शयन करते हैं । भगवान विष्णु को उपनिषद अप्रमेय अर्थात् असाध्य कहता है जबकि गणितीय सिद्धांत प्रमेय कहलाता है।
क्या आपको लगता नहीं कि मात्र सनातन धर्म हीं गणित को आस्था के समान अपने में  समाहित  किए बैठा है, बाकी धर्म तो अधिकतम 2500 साल के अंदर की पैदावार हैं । सबसे बड़े ज्ञानी रोमन  लोगों को शून्य का तो पता हीं  न था और आज तक रोमन अंकों में शून्य नहीं  लिख सकते।
हाँ तो बात थी अनंत की जिसे शेषनाग अर्थात् एक विशालकाय सर्प का पर्याय माना जाता है और इस सर्प के मस्तक  पर यह पृथ्वी  स्थित है । कितनी खूबसूरत कल्पना है कि एक ऐसी संख्या जिसके अंदर पूरी सृष्टि समा जाए फिर भी अपरिमित अंक शेष बँच जाए। अनंत का वर्तमान स्वरूप अपनी पूँछ को मुँह में दबाए एक साँप की अनुकृति है जो एक ऐसे वलय को दर्शाता है जिसका न कोई  आदि है न अंत। और इसी स्थिति को पुराणों और उपनिषदों ने यूँ  लिखा है -

पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

भाव यह है कि पूर्ण में से पूर्ण निकाल लिया जाए या उसमें पूर्ण सम्मिलित कर लिया जाए तो पूर्ण हीं  शेष बँचता है।

इस भाव को गणित में एक को शून्य से भाग देकर बताया गया है अर्थात् 1÷0 और यही है अनंत। शून्य भाजक हो और एक भाज्य तो किसी भी भागफल से भाग दीजिए शेष एक हीं  बचेगा।
उदाहरण में  प्रेम और घृणा को लीजिए । चाहे आप कितना भी प्रेम या घृणा करें या आपसे कोई करे पर प्रेम या घृणा के स्रोत में  इन भावों की कमी नहीं  होती ।

और क्या कहूँ । बाबा तुलसीदास कह गये  हैं. .... हरि अनंत  हरिकथा अनंता ।।।।